Tuesday, December 30, 2014

दिखने लगी बैचैनी अब नन्हीं बयाओं में

बारूद कहीं फैला लाज़िम ही फ़िज़ाओं में
दिखने लगी बैचैनी अब नन्हीं बयाओं में

जब कुछ न असर दिखता दुनिया की दवाओं में
मन ढूँढने लगता है दादी को खलाओं में

क्यूँ ढूंढते कमजोरी तुम उनकी अदाओं में
क्या जीने की सद-इच्छा दिखती न लताओं में

यायावरी की अल्हड इक ज़िद लिए बच्चे सी
"ये चाँद बहुत भटका सावन की घटाओं में"

रोशन जहाँ के हाकिम भरना तू मेरी झोली
हाँ नामशुमारी है अपनी भी गदाओं में

वो बाँटता था सुख दुःख सौ हाथ मदद लेकर
यूँ ही नहीं थी गिनती कान्हा की सखाओं में

उम्मीद मेरे दिल की है तुझसे ही तो कायम
साहस को नवाजेगा तू अपनी अताओं में 

तरही मिसरा "ये चाँद बहुत भटका सावन की घटाओं में "शायर जनाब बशीर बद्र साहब  की ग़ज़ल से 

Sunday, December 28, 2014

प्रशासन

सर्दियों की कुनकुनी धूप का आनन्द लेने मैं छत पर पहुंची तो पास की छतों पर बच्चे पतंग उड़ाने में व्यस्त थे कुछ दूर से  किसी चुनावी सभा की  धीमी-धीमी सी आवाज आ रही थी वहीँ चटाई पर अपने क़ागज फैलाये बिटिया मिनी नशा-मुक्ति सम्बन्धी पोस्टर तैयार करने में लगी थी |
पोस्टर कुछ इस तरह उभर रहा था –सिगरेट के चित्र के पास मानव कंकाल ... सिगरेट रूप में बनी अर्थी ..शराब की बोतल के पास स्वास्थ्य सम्बन्धी चेतावनी और आस-पास कुछ समाचारपत्रों की कतरनें ...जहरीली शराब पीने से बीस मरे .....| आगे एक खबर पर नज़र ठहर गयी जिसमें लिखा था कि फ़ैजाबाद में मेथेनोल के टैंकर से रिसते द्रव को लोगों ने शराब समझ कर पिया इसकी वजह से दस मरे और तीस को अस्पताल में भर्ती किया | टैंकर  पर चेतावनी लिखी होने के बावजूद उक्त हादसा हुआ | विपक्षी नेता सांत्वना देने पहुंचे और प्रशासन की गलती बताते हुए मृतकों के परिवारों के लिए  पांच –पांच लाख रूपये मुआवज़े की मांग की गयी  ...|
पढ़ते ही कौंध गयी कुछ घटनाएं .. बंद रेलवे फ़ाटक पर रेलवे-लाइन  पार करता युवक कट कर मरा ... मुआवज़े की मांग .... रात को बिजली के तार पर तार डालता हुआ युवक करंट लगने से घायल ..प्रशासन से मुआवज़े की मांग |
तभी पार्क से आती आवाज़ कुछ तेज हो गयी थी नेता जी कह रहे थे कि बिजली पानी की समुचित व्यवस्था न कर पाने के लिए यह परशासन  ही दोषी है सड़कों पर अतिक्रमण के लिए भी परशासन ही दोषी है सरकार को चाहिए .......|

मेरा मन  प्रशासन बनाम  पर-शासन की खींचतान में उलझा था   |

Saturday, December 6, 2014

कुछ अजब तौर की कहानी थी

ख़्वाब सहलाती इक कहानी थी
रात सिरहाने मेरी नानी थी


रंज ही था न शादमानी थी
"कुछ अजब तौर की कहानी थी"

वो जो दिखती हैं रेत पर लहरें
वो कभी दरिया की रवानी थी

था जुदा फलसफा तेरा शायद
मुख्तलिफ़ मेरी तर्जुमानी थी

ये बची राख ये धुआं पूछे
जीस्त क्या सिर्फ राएगानी थी

कट गया नीम नीड़ भी उजड़े
भींत आँगन में जो उठानी थी

अब गुमाँ टूटा आखिरी दम पर
चिड़िया तो सच ही बेमकानी थी


तरही मिसरा . "कुछ अजब तौर की कहानी थी"....आदरणीय मीर तकी मीर साहब के क़लाम से

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