Saturday, July 30, 2011

गज़ल(चमकते हुए तारों को...)

चमकते हुए तारों को आँखों में पनाह दे,
ना किस्मत से इनको जोड और एतराज दे ।


दिल पर उग आये अनचाहे मकडी के जाले,
पोंछ कर इनको हर रिश्ते को नई निगाह दे । 


कभी जमीं तो कभी आसमाँ को तरसते लोग,
होगा चाँद मुट्ठी में जडों पे ऐतबार दे । 


मुमकिन है राम सा भाई मिले कृष्ण सा सखा,
अपनी आस्था विश्वास को फिर से निखार दे ।


इतिहास की भूलों से ये सीखेंगे भला क्या,
कहते हैं आगे की सुध ले पिछली बिसार दे ।


Sunday, July 24, 2011

लौटना चाहता हूँ

माँ
याद आती है
छवि तुम्हारी
द्रुतगति से
काम में तल्लीन
कहीं नीला शांत रंग
कहीं उल्लसित गेरू से पुती
दीवारें कच्ची
माटी के आँगन पर उभरती
तुम्हारी उँगलियों की छाप थी
या कि रहस्यमयी नियति की
तस्वीर सच्ची
तुम नहीं थी
आज की नारी जैसी
जो बदलती है करवटें रात भर
और नहीं चाहती
परम्परा के बोझ तले
साँसें दबी घुटी सी
पर चाहती है गोद में बेटा
सिर्फ बेटा
और बेटे से आस पुरानी सी
मैं सुनता हूँ उसकी सिसकती साँसे
विविध रंगों के बीच
मुरझाए चेहरों की कहानी कहती
दीवार पर लटकी
किसी महंगी तस्वीर सी
और उधर मैं
फोन के एक सिरे पर
झेलता हूँ त्रासदी
तेरी गोद में
छुप जाने को बैचैन
नहीं कमा पाया मनचाहा
ना ही कर पाया हूँ मनचीती
लौटना चाहता हूँ
तेरे आँचल की छाँव में
डरता हूँ
अगले कदम की फिसलन से
प्रतिनायक बना खड़ा है
मेरा व्यक्तित्व
मेरी प्रतिच्छवि बनकर
क्या सचमुच
मैं यही होना चाहता था
जो आज हूँ
पर सच है
मैं लौटना चाहता हूँ !
मैं लौटना चाहता हूँ !!
लौटना चाहता हूँ !!!

Sunday, July 17, 2011

तुम्हारी शाख


बन जाऊं एक कलम सी

तुम्हारी शाख हो जाऊं

छोड़ बाबुल की क्यारी

तुम्हारी जड़ों से जुड जाऊं

ताप भी विलगा न सके

नेह बूंदों से सींचोगे

केवल प्रेम डोर से ही

बंधन मजबूत होंगे

और तब पत्ते दर पत्ते

विश्वास पनप जाएगा

एक हो जायेंगी साँसे

आँगन महक जाएगा

Sunday, July 10, 2011

गज़ल (मेरे दिल पर )


मेरे दिल पर लिक्खी थी लो तुमने कह दी बात वही
एक हंगामा गुजर गया और न थी कोई बात नई

माँ की गोदी में बैठा हो जैसे बच्चा एक कोई
जिंदगी क्यूँ चाहूँ मैं हर पल तुझसे एहसास वही

पीरो पैगम्बर उतरेंगे दिल को मेरे यकीं यही
नदी की जानिब बहे समंदर क्या ये आसार नहीं

दोनों हाथ उलीचा उसने पर मेरा दामन खाली
राज मुझे मालूम है कि झोली छलनी इक जात रही

दर-दर फिरता बना भिखारी दिल को मिले सुकून कहीं
पता मुझे बतला देना गर बँटती हो खैरात कहीं

Monday, July 4, 2011

गज़ल (सन्नाटा क्यूँ है )

चारों तरफ है शोर तो भीतर सन्नाटा क्यूँ है
खामोश है कोई तों इतना सताता क्यूँ है

मैं हँसूं खिलखिलाऊँ कहकहे लगाऊं हक है
ए आम आदमी बता तू मुस्कुराता क्यूँ है

छूटते गए रिश्ते अलग दिखने की चाह में
टूटा आईना सामने अब डराता क्यूँ है

जर्रे जर्रे में तू हर शै तेरा कमाल
क्या राज है बता पता अपना छुपाता क्यूँ है

बेटा पैसा महल खुदाई क़ैद के सामान
कमा लिये तूने तों रिहाई चाहता क्यूँ है

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